Thursday, December 31, 2009

साल २००९ जा रहा.....!!











२१वीं सदी के आखिरी दशक की आखिरी शाम. ये साल बहुतों के लिए बहुत अच्छा रहा होगा तो बहुतों के लिए बहुत बुरा. कुछ लोगों के लिए ये साल मिलाजुला रहा होगा. सभी अपने - अपने तरीके से बीत रहे साल २००९ का मूल्यांकन कर रहे हैं. भारत का आम आदमी इस साल जिससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है उनमें क्रमशः महंगाई, मंदी, महामारी, बेरोज़गारी, अव्यवस्था आदि.
आज मैंने भी इस गुजर रहे साल का अपने तरीके से मूल्यांकन करने बैठा तो विचार गद्द की जगह पद्द के रूप में निकल पड़े. इन्हीं विचारों को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ........
साल २००९ जा रहा है......!!


अमीरों को और अमीरी देकर
गरीबों को और ग़रीबी देकर
जन्मों से जलती जनता को 
महंगाई की ज्वाला देकर
साल २००९ जा रहा है.....

अपनों से दूरी बढ़ाकर
नाते, रिश्तेदारी छुड़ाकर
मोबाइल, इन्टरनेट का 
जुआरी बनाकर
अतिमहत्वकान्क्षाओं का 
व्यापारी बनाकर
ईर्ष्या, द्वेष, घृणा में 
अपनों की सुपारी दिलाकर
निर्दोषों, मासूमों, बेवाओं की 
चित्कार देकर
साल २००९ जा रहा.....


नेताओं की 
मनमानी देकर
झूठे-मूठे 
दानी देकर
अभिनेताओं की 
नादानी देकर
पुलिस प्रशासन की
नाकामी देकर
साल २००९ जा रहा.....


अंधियारा ताल ठोंककर
उजियारा सिकुड़ सिकुड़कर 
भ्रष्टाचार सीना चौड़ाकर
ईमानदार चिमुड़ चिमुड़कर
अर्थहीन सच्चाई देकर
बेमतलब हिनाई देकर
झूठी गवाही देकर
साल २००९ जा रहा.....

धरती के बाशिंदों को 
जीवन के साजिंदों को
ईश्वर के कारिंदों को
गगन के परिंदों को
प्रकृति के दरिंदों को
सूखा, भूखा और तबाही देकर
साल २००९ जा रहा.....

कुछ सवाल पैदाकर 
कुछ बवाल पैदाकर
हल नए ढूंढने को
पल नए ढूंढने को
कल नए गढ़ने को
पथ नए चढ़ने को
एक अनसुलझा सा काम देकर
साल २००९ जा रहा.....


प्रबल प्रताप सिंह




Send a picture Scrap - 123orkut






Sunday, December 27, 2009

एक क़ुरान - ए - सुख़न का सफ़ा खुलता है......!!










" बल्लीमाराँ के मोहल्लों की वो पेचीदा दलीलों की - सी गलियाँ
सामने टाल के नुक्कड़ पे, बटेरों के क़सीदे
गुड़गुडाती हुई पान की पीकों में वह दाद, वह वाह - वा
चाँद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा - से कुछ टाट के परदे 
एक बकरी के मिमियाने की आवाज़ 
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे 
ऐसे दीवारों से मुंह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ीवालान के कटोरे की ' बड़ी बी ' जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले 
इसी बेनूर अँधेरी - सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चरागों की शुरू होती है
एक क़ुरान - ए - सुख़न का सफ़ा खुलता है
' असद उल्लाह खाँ ग़ालिब ' का पता मिलता है". ( गुलज़ार )
आज से ठीक २१२ साल पहले २७ दिसम्बर १७९७ को अब्दुल्लाह बेग खाँ के घर मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म हुआ. उर्दू और फारसी ग़ज़ल के महान शायर मिर्ज़ा असद उल्लाह खाँ के बारे में पहले से ही बहुत कुछ कहा जा चुका है. बकौल अयोध्या प्रसाद गोयलीय, महाभारत और रामायण पढ़े बगैर जैसे हिन्दू धर्म पर कुछ नहीं बोला जा सकता, वैसे ही ग़ालिब का अध्ययन किए बगैर, बज़्मे - अदब में मुंह नहीं खोला जा सकता है. इसलिए दोस्तों ज्यादा वक्त जाया न करते हुए ग़ालिब के गुलशन - ए - ग़ज़ल से कुछ चुनिन्दा  ग़ज़ल - ए - गुल का लुत्फ़ उठाइए..........

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले 
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.
मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हमसे लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले.
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का 
उसी को देखकर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले.
कहां मयखाने का दरवाज़ा ' ग़ालिब ' और कहां वाइज़ 
पर, इतना जानते हैं, कल वो जाता था कि हम निकले.

रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए 
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए.
इस रंग से उठाई कल उसने 'असद ' की लाश 
दुश्मन भी जिसको देख के गमनाक हो गए.

बाज़ीचए अतफ़ाल१ है दुनिया मेरे आगे 
होता है शबोरोज़ तमाशा मेरे आगे.
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे 
तू देख कि क्या रंग है तेरे मेरे आगे.
नफ़रत का गुमां गुज़रे है, मैं रश्क से गुज़रा 
क्योंकर कहूं लो नाम न उसका मेरे आगे.

नुक्ताचीं२ है गमे दिल उसको सुनाए न बने 
क्या बने बात जहां बात बनाए न बने.
गैर फिरता है लिए यूं तेरे ख़त को कि अगर 
कोई पूछे कि यह क्या है तो छुपाए न बने.
इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है वो आतिश " ग़ालिब "
कि लगाए न लगे और बुझाए न बुझे.

नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाजू पर परीशाँ हो गईं 
रंज से खूंगर३ हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज 
मुश्किलें इतनी पड़ी मुझपर कि आसां हो गईं.

यह हम जो हिज्र में दीवारों दर को देखते हैं
कभी सबा को कभी नामाबर को देखते है.
वो आएं घर में हमारे ख़ुदा की कुदरत है
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं.


न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता तो क्या होता.
हुई मुद्दत कि " ग़ालिब " मर गया पर याद आता है
वह हर इक बात पर कहना कि ' यूं होता तो क्या होता '.


बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना.
हैफ़४ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत " ग़ालिब "
जिसकी क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबां होना.

इश्क़ से तबियत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई, दर्द बेदवा पाया.

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक.
आशिक़ी सब्र तलब५ और तमन्ना बेताब
हमने माना कि तगाफ़ुल६ न करोगे, लेकिन
ख़ाक हो जाएंगे हम, तुनको ख़बर होने तक.


ज़ुल्मतकदे में मेरे, शबे गम का जोश है
इक शम्अ है दलीले सहर वो भी ख़मोश है.
दागे - फ़िराके७ सोह्बते - शब८ की जली हुई 
एक शम्अ रह गई है, सो वो भी ख़मोश है.
आते हैं ग़ैब९ से ये मज़ामी१० ख़्याल में
" ग़ालिब " सरीरे - खामा११, नवा - ए - सरोश१२ है.

फिर कुछ इस दिल को बेक़रारी है
सीना, जुया - ए - ज़ख्मे - कारी१३ है.
फिर जिगर खोदने लगा नाखून
आमदे फ़सले - लालाकारी१४ है.
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
फिर वाही ज़िन्दगी हमारी है.
फिर हुए हैं गवाहे - इश्क़ तलब१५ 
अश्कबारी का हुक्म जारी है.
बेखुदी, बेसबब नहीं " ग़ालिब "
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.

ग़ैर ले महफ़िल में बोसे जाम के 
हम रहे यूं तश्नालब१६ पैग़ाम के.
दिल को आँखों ने फंसाया क्या मगर
ये भी हल्के१७ हैं तुम्हारे दाम१८ के.
इश्क़ ने " ग़ालिब " निकम्मा कर दिया 
वर्ना हम भी आदमी थे काम के.


उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है.
देखी पाते हैं उश्शाक१९ बुतों से क्या फैज़२०
इक बिरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है.
हमको मालूम है जन्नत की हकीक़त, लेकिन
दिल के खुश रखने को " ग़ालिब " ये ख़्याल अच्छा है.


हर एक बात पे कहते हो तुम, कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े गुफ़्तगू२१ क्या है.
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन२२
हमारे जेब को अब हाजते - रफ़ू २३  क्या है.
जला है जिस्म जहां, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है.
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है.
रही न ताकते - गुफ़्तार२४ और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है.
१. बच्चों का खेल.

२. बाल की खाल निकालना.
३ . अभ्यस्त, आदि.

४ . अफ़सोस.

५ . धैर्यपूर्ण.

६ . उपेक्षा.

७ . वियोग की पीड़ा.

८ . रात का साथ.

९ . विषय-सन्दर्भ.

१० . परोक्ष रूप से.

११ . लिखने की ध्वनि.

१२ .शुभ सन्देश वाहक.

१३ . गहरे घाव को ढूँढने वाला.

१४ . पुष्प लहर का आना.

१५. प्रियवर की गवाही.

१६. प्यासे होंठ.

१७ . फंदा.

१८. जाल.

१९. प्रेमी.

२० . लाभ.

२१ . वार्तालाप का ढंग .

२२ . लिबास.

२३ . सिलना-पिरोना.

२४ . बात करने की शक्ति.

 


प्रबल प्रताप सिंह

 


Saturday, December 19, 2009


ग़ज़ल 


लबादा पैसों का जबसे ओढ़ा है
हर भावों को पैसों से तोला है.

ये भी सच है एक हद तक 
इसी पैसे ने हमको तुमसे जोड़ा है.

लेकिन ये भी सच है, पैसे ने 
तुम तक पहुंचने में डाला रोड़ा है.


कितना बचेगा तू पैसों के कफ़स' से 
बड़े - बड़ों का ईमान इससे डोला है.


न भरने वाला है ये जख्म 
अमीरी ग़रीबी के तन में फोड़ा'' है.


सच्चाई की जुबां भी बदली है
गवाही का मुंह इसने मोड़ा है.

न रखना जेब में अधिक जगह "प्रताप"
रिश्तों को भरी जेबों ने तोडा है.


'-- कैद.
''-- घाव.
प्रबल प्रताप सिंह

Thursday, December 17, 2009

ग़ज़ल

ग़ज़ल 
तमाम सुबहें गुजरीं हैं तन्हाइयों के अंजुमन में
कभी मांगी नहीं मदद सफ़र के हवाओं से.


ओढ़ लूं सफ़र की धूप चाँद की तरह 
भर डे दामन मेरा माँ तू अपनी दुआओं से.


मैं अब तक घिरा हूँ माज़ी की घातों से
मुक्त कर दे खुदा मुझे गुज़रे गुनाहों से.


बाजुओं देना साथ मेरा सफ़र में
दो दो हाथ कर सकूं दर्दे-शूरमाओं से.


ऐसा उपवन लगाना 'प्रताप'
गुजरूँ तो नजर आओ तुम चारों दिशाओं से.


प्रबल प्रताप सिंह

Sunday, November 15, 2009

ग़ज़ल

गरीबों के विकास कि जो बात करते हैं
हर चीज का वो    व्यापार करते है.

मिलती है रोटी, कपड़ा और मकान
जो   उनका       दरबार    करते हैं.

दौलत जुटाने में खाली वक्त कहाँ
कहने को मोबाइल पे प्यार की बात करते हैं.

विनम्रता हमसे तलाक नहीं लेती
वो हमेशा तंज व्यहार करते हैं.

उन्हीं के नाम की जय- जयकार होती है
जो वैमनस्यता का कारोबार करते है.

किस दिन उसे एहसास होगा "प्रताप"
कि हम पड़ोसियों को कितना प्यार करते हैं.





--
शुभेच्छु

प्रबल प्रताप सिंह

कानपुर - 208005
उत्तर प्रदेश, भारत

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ईमेल-
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Saturday, October 17, 2009

सभी ब्लॉगर बंधुओं को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें...!!
जलाओ दीप जलाओ...!

एकता का दीप जलाओ
समता का दीप जलाओ
ममता का दीप जलाओ.


प्रेम की बाती
सौहार्द का तेल 
मानवता का दीया बनाओ.

जलाओ........


मन से ईर्ष्या
जन से द्वेष 
तन से घृणा 
आपस से क्लेश मिटाओ.


जलाओ.....!!

Sunday, August 23, 2009

कविता

शब्दों की लम्बाई से

शब्दों की चौड़ाई से

शब्दों की गहराई से

शब्दों की रसाई से

रिश्ते और जीवन
बनते हैं।

शब्दों की पिटाई से

शब्दों की ढिठाई से

शब्दों की खिंचाई से

शब्दों की घिसाई से

रिश्ते और जीवन
बिगड़ते हैं.

Thursday, May 14, 2009

ग़ज़ल

कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें
गमे-वक्त कुछ तुम सहो, कुछ हम सहें.

ये सफ़र हो कितना भी तवील
कुछ तुम चलो, कुछ हम चलें।

हादसों के सफ़र में, दर्द अपनों के
कुछ तुम सुनो, कुछ हम सुनें।

इल्ज़ाम न दो किसी और को, रश्क में
कभी तुम गिरे, कभी हम गिरे।

तसव्वुरों के खेत में काटते ख्वाबे-फ़सल
कभी तुम मिले, कभी हम मिले।

रंगीन शबों से ऊबकर, तन्हा रातों से
कभी तुम मिले, कभी हम मिले।

मोहब्बत की चाह लिए, खुलूसे-अंजुमन में
"प्रताप" कभी तुम मिले, कभी हम मिले।

हसरतों के सहरा में उम्मीदे-गुल बनकर
कभी तुम मिले, कभी हम मिले।

Saturday, May 9, 2009

कविता

सभी ब्लॉगर्स को मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

                    मां
     
                  मां
               मां  होती है.
    
               मां 
             धरती होती है.
       
               मां
             आकाश होति है.

               मां 
        जाडे की गुनगुनी धूप होती है.

               मां
        जेठ की दोपहर की छांव होती है.

               मां 
         सावन का झूला होती है.

                मां
            वसन्ती हवा होती है.
 
                 मां
           हर रिश्ते का आधार होती है.

                 मां
             घर की नींव होती  है.

                 मां
             शीतल नदी होती है.

                 मां 
           साहिल और समुन्दर होती है.

                 मां
          मेरे हर सफर की शुरूआत होती है.

Thursday, May 7, 2009

ग़ज़ल

हम तुम न होते
तो ये रिश्ते न होते।

ये रिश्ते न होते तो
जिंदगानी के इतने किस्से न होते।

इतने रस्मो-रिवाज़ न होते
इस दुनिया के इतने हिस्से न होते।

न ज़मीं होती न आसमां होता
इस आसमां में उड़ते परिंदे न होते।

न साज़ होता न आवाज़ होती
जीवन-संगीत के इतने साजिन्दे न होते।

न ख़ुदा होता न खुदाई होती
हर जगह उसके इतने कारिन्दे न होते।

"प्रताप" अगर ये मुल्क न होता तो
हम जैसे उश्शाक सरफ़रोश बाशिंदे न होते।

ग़ज़ल

मैंने क्या किया है अब तक, नहीं बताना चाहता हूँ
बस, तुम्हें मैं हर तरह से सुधारना चाहता हूँ।

स्वयं को मैं बदल सकता नहीं
बस, तुम्हें मैं हर तरह से बदलना चाहता हूँ.

जो मैं अब तक नहीं बन सका
मेरे बच्चे, मैं तुझमें बनकर गुज़रना चाहता हूँ।

"प्रताप" ये क्या बोलते हो, मैं बच्चा हूँ
अपने तरीके से दुनिया में उतरना चाहता हूँ.

Monday, May 4, 2009

ग़ज़ल

जब तक आदमी जिए जा रहा है
तब तक उघडते रिश्ते सिये जा रहा है।

सोज़े-रश्क की तपिश कम करने को
आदमी धुंआ पिए जा रहा है।


बेज़ा आरज़ुओं के कफ़स में आदमी
ज़ीस्त अपनी किए जा रहा है।

इक अनजाने डर का लबादा सदियों से
आदमी अदम तक लिए जा रहा है।

बढ़ती आबादी के बढ़ते आज़ार
बे-मतलब आदमी भीड़ में पीले जा रहा है।

"प्रताप" कब थमेगा ये सिलसिला नफ़रत का
समझदार भी अब नफ़रत में घिरे जा रहा है।

Saturday, May 2, 2009

ग़ज़ल

तुम्हारे सामने हजारों सवाल रखेगी
जिंदगी हर दिन एक नया बवाल रखेगी।

ठीक से रखो अपना हिसाब
कब तक माँ तुम्हारा ख्याल रखेगी।

उम्र के इक मोड़ पर वो भी आएगा
तेरे सामने वक्त हजारों ज़माल रखेगी।

आज को जितना तू संवारेगा
कल बुढापे को तेरे संभाल रखेगी।

प्रकृति के विपरीत जितना तू चलेगा
तेरे सामने प्रकृति उतना अकाल रखेगी।

तू चाहे जितनी शैतानियाँ कर सबसे "प्रताप"
कोई रखे न रखे माँ तुझे ममता तले बहरहाल रखेगी.
ग़ज़ल
ग़ज़ल

Thursday, March 26, 2009

ग़ज़ल

तमाम सुबहें गुज़री हैं तन्हाइओं के अंजुमन में
कभी मांगी नहीं मदद सफर के हवाओं से ।
ओढ़ लूं सफर की धूप चाँद की तरह
भर दे दामन ऐ माँ तू अपनी दुआंवों से ।
मैं अब तक घिरा हूँ माजी की घातों से
मुक्त कर दे ऐ खुदा मुझे गुजरे गुनाहों से ।
बाजुओं देना साथ मेरा सफर में
दो दो हाथ कर सकूं दर्दे -शूरमाओं से ।
ऐसा उपवन लगाना "प्रताप"
गुजरूँ तो नजर आओ तुम चारों दिशाओं से ।