Thursday, March 26, 2009

ग़ज़ल

तमाम सुबहें गुज़री हैं तन्हाइओं के अंजुमन में
कभी मांगी नहीं मदद सफर के हवाओं से ।
ओढ़ लूं सफर की धूप चाँद की तरह
भर दे दामन ऐ माँ तू अपनी दुआंवों से ।
मैं अब तक घिरा हूँ माजी की घातों से
मुक्त कर दे ऐ खुदा मुझे गुजरे गुनाहों से ।
बाजुओं देना साथ मेरा सफर में
दो दो हाथ कर सकूं दर्दे -शूरमाओं से ।
ऐसा उपवन लगाना "प्रताप"
गुजरूँ तो नजर आओ तुम चारों दिशाओं से ।