ग़ज़ल
तमाम सुबहें गुजरीं हैं तन्हाइयों के अंजुमन में
कभी मांगी नहीं मदद सफ़र के हवाओं से.
ओढ़ लूं सफ़र की धूप चाँद की तरह
भर डे दामन मेरा माँ तू अपनी दुआओं से.
मैं अब तक घिरा हूँ माज़ी की घातों से
मुक्त कर दे खुदा मुझे गुज़रे गुनाहों से.
बाजुओं देना साथ मेरा सफ़र में
दो दो हाथ कर सकूं दर्दे-शूरमाओं से.
ऐसा उपवन लगाना 'प्रताप'
गुजरूँ तो नजर आओ तुम चारों दिशाओं से.
प्रबल प्रताप सिंह
nice
ReplyDeletecomment ke lie dhanyvaad shrimaan suman ji...!!
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