Saturday, December 19, 2009


ग़ज़ल 


लबादा पैसों का जबसे ओढ़ा है
हर भावों को पैसों से तोला है.

ये भी सच है एक हद तक 
इसी पैसे ने हमको तुमसे जोड़ा है.

लेकिन ये भी सच है, पैसे ने 
तुम तक पहुंचने में डाला रोड़ा है.


कितना बचेगा तू पैसों के कफ़स' से 
बड़े - बड़ों का ईमान इससे डोला है.


न भरने वाला है ये जख्म 
अमीरी ग़रीबी के तन में फोड़ा'' है.


सच्चाई की जुबां भी बदली है
गवाही का मुंह इसने मोड़ा है.

न रखना जेब में अधिक जगह "प्रताप"
रिश्तों को भरी जेबों ने तोडा है.


'-- कैद.
''-- घाव.
प्रबल प्रताप सिंह

1 comment:

  1. भाव-पक्ष और कुछेक मिस्‍रों की बुनावट बहुत ही जबरदस्त है प्रबल भाई। लेकिन ग़ज़ल सचमुच में ग़ज़ल कहलाने के लिये कुछ और माँगती है अपने व्याकरण, छंद और बहरो-वजन की खातिर।

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