कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें
गमे-वक्त कुछ तुम सहो, कुछ हम सहें.
ये सफ़र हो कितना भी तवील
कुछ तुम चलो, कुछ हम चलें।
हादसों के सफ़र में, दर्द अपनों के
कुछ तुम सुनो, कुछ हम सुनें।
इल्ज़ाम न दो किसी और को, रश्क में
कभी तुम गिरे, कभी हम गिरे।
तसव्वुरों के खेत में काटते ख्वाबे-फ़सल
कभी तुम मिले, कभी हम मिले।
रंगीन शबों से ऊबकर, तन्हा रातों से
कभी तुम मिले, कभी हम मिले।
मोहब्बत की चाह लिए, खुलूसे-अंजुमन में
"प्रताप" कभी तुम मिले, कभी हम मिले।
हसरतों के सहरा में उम्मीदे-गुल बनकर
कभी तुम मिले, कभी हम मिले।
Thursday, May 14, 2009
Saturday, May 9, 2009
कविता
सभी ब्लॉगर्स को मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
मां
मां
मां होती है.
मां
धरती होती है.
मां
आकाश होति है.
मां
जाडे की गुनगुनी धूप होती है.
मां
जेठ की दोपहर की छांव होती है.
मां
सावन का झूला होती है.
मां
वसन्ती हवा होती है.
मां
हर रिश्ते का आधार होती है.
मां
घर की नींव होती है.
मां
शीतल नदी होती है.
मां
साहिल और समुन्दर होती है.
मां
मेरे हर सफर की शुरूआत होती है.
Thursday, May 7, 2009
ग़ज़ल
हम तुम न होते
तो ये रिश्ते न होते।
ये रिश्ते न होते तो
जिंदगानी के इतने किस्से न होते।
इतने रस्मो-रिवाज़ न होते
इस दुनिया के इतने हिस्से न होते।
न ज़मीं होती न आसमां होता
इस आसमां में उड़ते परिंदे न होते।
न साज़ होता न आवाज़ होती
जीवन-संगीत के इतने साजिन्दे न होते।
न ख़ुदा होता न खुदाई होती
हर जगह उसके इतने कारिन्दे न होते।
"प्रताप" अगर ये मुल्क न होता तो
हम जैसे उश्शाक सरफ़रोश बाशिंदे न होते।
तो ये रिश्ते न होते।
ये रिश्ते न होते तो
जिंदगानी के इतने किस्से न होते।
इतने रस्मो-रिवाज़ न होते
इस दुनिया के इतने हिस्से न होते।
न ज़मीं होती न आसमां होता
इस आसमां में उड़ते परिंदे न होते।
न साज़ होता न आवाज़ होती
जीवन-संगीत के इतने साजिन्दे न होते।
न ख़ुदा होता न खुदाई होती
हर जगह उसके इतने कारिन्दे न होते।
"प्रताप" अगर ये मुल्क न होता तो
हम जैसे उश्शाक सरफ़रोश बाशिंदे न होते।
ग़ज़ल
मैंने क्या किया है अब तक, नहीं बताना चाहता हूँ
बस, तुम्हें मैं हर तरह से सुधारना चाहता हूँ।
स्वयं को मैं बदल सकता नहीं
बस, तुम्हें मैं हर तरह से बदलना चाहता हूँ.
जो मैं अब तक नहीं बन सका
मेरे बच्चे, मैं तुझमें बनकर गुज़रना चाहता हूँ।
"प्रताप" ये क्या बोलते हो, मैं बच्चा हूँ
अपने तरीके से दुनिया में उतरना चाहता हूँ.
बस, तुम्हें मैं हर तरह से सुधारना चाहता हूँ।
स्वयं को मैं बदल सकता नहीं
बस, तुम्हें मैं हर तरह से बदलना चाहता हूँ.
जो मैं अब तक नहीं बन सका
मेरे बच्चे, मैं तुझमें बनकर गुज़रना चाहता हूँ।
"प्रताप" ये क्या बोलते हो, मैं बच्चा हूँ
अपने तरीके से दुनिया में उतरना चाहता हूँ.
Monday, May 4, 2009
ग़ज़ल
जब तक आदमी जिए जा रहा है
तब तक उघडते रिश्ते सिये जा रहा है।
सोज़े-रश्क की तपिश कम करने को
आदमी धुंआ पिए जा रहा है।
बेज़ा आरज़ुओं के कफ़स में आदमी
ज़ीस्त अपनी किए जा रहा है।
इक अनजाने डर का लबादा सदियों से
आदमी अदम तक लिए जा रहा है।
बढ़ती आबादी के बढ़ते आज़ार
बे-मतलब आदमी भीड़ में पीले जा रहा है।
"प्रताप" कब थमेगा ये सिलसिला नफ़रत का
समझदार भी अब नफ़रत में घिरे जा रहा है।
तब तक उघडते रिश्ते सिये जा रहा है।
सोज़े-रश्क की तपिश कम करने को
आदमी धुंआ पिए जा रहा है।
बेज़ा आरज़ुओं के कफ़स में आदमी
ज़ीस्त अपनी किए जा रहा है।
इक अनजाने डर का लबादा सदियों से
आदमी अदम तक लिए जा रहा है।
बढ़ती आबादी के बढ़ते आज़ार
बे-मतलब आदमी भीड़ में पीले जा रहा है।
"प्रताप" कब थमेगा ये सिलसिला नफ़रत का
समझदार भी अब नफ़रत में घिरे जा रहा है।
Saturday, May 2, 2009
ग़ज़ल
तुम्हारे सामने हजारों सवाल रखेगी
जिंदगी हर दिन एक नया बवाल रखेगी।
ठीक से रखो अपना हिसाब
कब तक माँ तुम्हारा ख्याल रखेगी।
उम्र के इक मोड़ पर वो भी आएगा
तेरे सामने वक्त हजारों ज़माल रखेगी।
आज को जितना तू संवारेगा
कल बुढापे को तेरे संभाल रखेगी।
प्रकृति के विपरीत जितना तू चलेगा
तेरे सामने प्रकृति उतना अकाल रखेगी।
तू चाहे जितनी शैतानियाँ कर सबसे "प्रताप"
कोई रखे न रखे माँ तुझे ममता तले बहरहाल रखेगी.
जिंदगी हर दिन एक नया बवाल रखेगी।
ठीक से रखो अपना हिसाब
कब तक माँ तुम्हारा ख्याल रखेगी।
उम्र के इक मोड़ पर वो भी आएगा
तेरे सामने वक्त हजारों ज़माल रखेगी।
आज को जितना तू संवारेगा
कल बुढापे को तेरे संभाल रखेगी।
प्रकृति के विपरीत जितना तू चलेगा
तेरे सामने प्रकृति उतना अकाल रखेगी।
तू चाहे जितनी शैतानियाँ कर सबसे "प्रताप"
कोई रखे न रखे माँ तुझे ममता तले बहरहाल रखेगी.
Subscribe to:
Posts (Atom)