Wednesday, October 13, 2010

ग़ज़ल 

















बेसबब दर्द कोई बदन में
यूं पैदा होती नहीं प्यारे.

गर समझ होती दर्द की
चारागर की जरूरत होती नहीं प्यारे.

गरीब होना क्या गुनाह है
अमीरी किसी की करीबी होती नहीं प्यारे.

सुन ओ मेरे वतन से रश्क करने वाले
मां हमारी रश्क के बीज बोती नहीं प्यारे.

कितना बढाऊँ हाथ आशनाई का '' प्रताप ''
एक हाथ से तो ताली बजती नहीं प्यारे.

प्रबल प्रताप सिंह

Friday, September 3, 2010


ग़ज़ल

जबसे बड़ों ने बड़प्पन छोड़ दिया
बच्चों ने सम्मान करना छोड़ दिया.

बंद कमरों में ज्ञान किसको मिला है
बच्चों ने अब कक्षा में बैठना छोड़ दिया.

बड़े होने की तमन्ना में
बच्चों ने बचपना छोड़ दिया.

वैश्वीकरण ने ऐसा मौसम बदला
बच्चों ने घर का खाना छोड़ दिया  

बराबरी के सिंहासन की होड़ में 
सबने विनम्रता का गहना छोड़ दिया.

कैसे गुजरेगी उम्र की आखिरी शाम " प्रताप "
अपनों ने सहनशीलता ओढ़ना छोड़ दिया.

प्रबल प्रताप सिंह

Friday, August 27, 2010

ग़ज़ल

हौसला अपना बनाये रखना
आस का दीया जलाए रखना.

ज़िन्दगी हर क़दम पे झटके खिलाएगी
क़दम फिर भी बढ़ाए रखना.

इच्छाओं ने लूटा है बार-बार
उम्मींदों का आशियाँ बसाये रखना.

हो गई है जिस्म अब बाज़ार की 
हो सके तो थोड़ा ज़मीर बचाए रखना.

सफ़र हो सकता है तवील जीस्त का
आशाओं के क़दम चलाये रखना.

घुड़दौड़ तमन्नाओं में रिश्ते छूट गए
मिलें कहीं तो " प्रताप " ख़ुलूस बनाये रखना.

प्रबल प्रताप सिंह

Wednesday, August 18, 2010


ग़ज़ल

हम उनको नादां
समझाने की भूल कर गए.
वो हमारी जीस्ते-तरक्की१ में 
तन के शूल बन गए.
 ये बात वो एक रात 
मयखाने में कबूल कर गए.
तब हमें ये इल्म हुआ 
किसे हम अपना रसूल२ कर गए.
मेरा इरफ़ान३ कहीं सो गया था
औ' वो हमारी किस्मत धूल कर गए.
सब कुछ दे दिया था उनको 
अपनी रश्कों से हमारा मक्तूल४ कर गए.

१- जीवन की प्रगति
२- नबी
३- विवेक
४- कत्ल

प्रबल प्रताप सिंह

Saturday, August 14, 2010

















लो फिर आ गया १५ अगस्त 

लो फिर आ गया १५ अगस्स्त
स्वाधीनता उत्सव का एक और दिवस
पीएम ली आयेंगे 
लाल किले की प्राचीर पर
आज़ादी का झंडा फहराएंगे.
कुर्सियों पर बैठे देशी-विदेशी नागरिक 
ताली बजायेंगे.
कुछ लोग घरों में लेटे
लोकतंत्र पर गाल बजायेंगे.

पीएम जी झंडा फहराने के बाद
अतिसुरक्षित घेरे में जन-गण को
क्या किया है, क्या करेंगे
वादों का भाषण सुनायेंगे.
मेरे जैसे कुछ देशप्रेमी 
वादों के ' वाइब्रेशन ' में
सीना फुलायेंगे.

वादे पूरे हो न हों
पीएम जी को इससे क्या लेना
भाषण तो किसी और ने लिखा था
उनका काम था
उसे पढ़कर सुना देना.
जैसे स्कूल का बच्चा 
पाठ याद कर कक्षा में सुनाता है
और
गुरू जी की शाबाशी पा
गदगद हो जाता है.

मेरा दोस्त ' मुचकुंदीलाल '
हर स्वाधीनता दिवस पर 
देशप्रेम की दरिया में डूब जाता है.
पीएम जी का भाषण सुन
सुन्दर सपनो में खो जाता है.

' मुचकुंदी...' ' मुचकुंदी...'
उठो पीएम जी चले गए.
वादों का झुनझुना सबको देते गए.
डोर में बंधा तिरंगा
' फड़फडा ' रहा है.
' मुचकुंदीलाल ' ' झुनझुना ' बजा रहा है
देशभक्ति गीत गा रहा है .
अगले बरस 
पीएम जी फिर आयेंगे
लाल किले पर झंडा फहराएंगे.
वादों का बशन पिलायेंगे 
और
चले जायेंगे.
पिचले तिरसठ वर्षों से यही होता रहा है
भारत इसी आज़ादी में जिंदा रहा है.
            ..........................
प्रबल प्रताप सिंह

Tuesday, August 3, 2010

ग़ज़ल














इंसानियत छोड़िए, सब जल जाता  है 
आदमी भीड़ में भेड़िया बन जाता है.

मनिया अपनी मुन्नी को चाहे जितना छुपाये 
यौवन ' यू ट्यूब ' पर बिक जाता है.

छुपाओ लाख शयनकक्ष की शब
 ' इन्टरनेट ' पर सब दिख जाता है.

विज्ञान कभी वरदान नहीं बन पाया
अभिशाप बन हर बार आ जाता है.

आदमी तो आदमी ठहरा 
सूरा पीने के बाद क्यों सूअर बन जाता है.
  
प्रबल प्रताप सिंह 

Sunday, April 25, 2010

हम बचपन में...

मेरी ग़ज़ल अमर उजाला कोम्पेक्ट में  ( जो कविता के नाम से छप गई है )
बड़े आकार में देखने के लिए मैटर पर किल्क करें.

 














प्रबल प्रताप सिंह

Monday, March 15, 2010

ग़ज़ल

 बता ऐ मौला मेरे...!

चश्म से रश्के-ऐनक हटा मेरे
मैं कौन हूं,  बता ऐ मौला मेरे.
यूं ही बिता दूं रश्क में सारी उमर
मैं क्या करून बता, ऐ मौला मेरे.
सभी अपने से दिखते हैं जहां में
मैं किसको शिकस्त दूं , बता ऐ मौला मेरे.
सबकी मजिल एक, क्यों रश्ते सबके अलग
मैं किस रश्ते पर चलूँ , बता ऐ मौला मेरे.
तुझ तक पहुंचना है क्यों मुश्किल
मैं तुझ तक कैसे पहुंचू , बता ऐ मौला मेरे.
तुझको परखना भी आसां नहीं 
मैं तुझे कैसे पहिचानूं , बता ऐ मौला मेरे.

प्रबल प्रताप सिंह

Saturday, January 23, 2010

देखो ऋतुराज बसंत है आया






देखो ऋतुराज बसंत है आया
तन मन जन का है हर्षाया.
खेतों में निकली है सरसों पीली-पीली
शबनम की बूंदों से धरती की होंठ है गीली-गीली.
कलियों ने नैन-कपाट हैं खोले
भवरों ने मीठे-मीठे बैन हैं बोले.
कवियों का हृदय हुआ आह्लादित
विविध शब्द-रस हुआ उदघाटित.








चारों दिशाएं झूम के गाएं
आंगन मोरे ऋतुराज हैं आएं.
हवा चली आज बसंती
महक रहे जन आज बसंती.
खोल पुराने छोड़-छाड़कर
पीत वस्त्र पहन निकला है दिवाकर.
नदियां,साहिल और समुन्दर मारे पींगे
बसंती धार से सत, रज, तम सब गुन भींगे.









बरस भर के सूखे फूल खिले
बयार बसंती में मुरझे हृदय-कमल खिले.
'प्रबल' बसंती 'प्रणवीर' बसंती
हुए पाकर 'धुन', 'शुभ्र', 'वत्सल' बसंती.
(प्रणवीर- अग्रज भाई, धुन- बड़ी भांजी, शुभ्र- बड़ी भतीजी, वत्सल- छोटी भतीजी.)

प्रबल प्रताप सिंह

Sunday, January 17, 2010

हम तो बचपन में भी अकेले थे

हम तो बचपन में भी अकेले थे




 जावेद अख्तर फ़िल्मी दुनिया के एक चिर-परिचित शख्स है. हमारी पीढ़ी जावेद अख्तर के लिखे गीतों, फिल्मों को सुनकर और देखकर जवान हुई है. आज उनका जन्म दिन है. इस अवसर पर उनके ' तरकश ' ( नज़्मों और ग़ज़लों का संकलन ) से मेरे पसंदीदा तीर मुबारक दिवस पर पेश कर रहा हूं. आशा करता हूं कि आपको मेरे पसंदीदा ' तरकश ' के तीर पसंद आएंगे.






 

                     (1)

ख़ुशशक्ल१ भी है वो, ये अलग बात है, मगर
हमको ज़हीन२ लोग हमेशा अज़ीज़३ थे.



       






            (2)
हम तो बचपन में भी अकेले थे
सिर्फ दिल की गली में खेले थे.
इक तरफ़ मोर्चे थे पलकों के
इक तरफ़ आंसुओं के रेले थे.
थीं सजी हसरतें४ दूकानों पर
ज़िंदगी के अजीब मेले थे.
ख़ुदकुशी क्या दुखों का हल बनती
मौत के अपने सौ झमेले थे.
ज़हनों-दिल आज भूखे मरते हैं
उन दिनों हमने फ़ाके झेले थे.





 

                (3)
सूखी टहनी तनहा चिड़िया फीका चांद
आंखों के सहरा५ में एक नमी का चांद.
उस माथे को चूमे कितने दिन बीते
जिस माथे की खातिर था इक टीका चांद.
पहले तू लगती थी कितनी बेगाना
कितनी मुब्हम६ होता है पहली का चांद.
कम हो कैसे इन खुशियों से तेरा ग़म
लहरों में कब बहता है नद्दी का चांद.
आओ अब हम इसके भी टुकड़े कर लें
ढाका, रावलपिंडी और दिल्ली का चांद.



                  (4) 
अपनी वजहे-बरबादी सुनिए तो मज़े की
ज़िंदगी से यूं खेले जैसे दूसरे की है.













               (5)
ग़म होते हैं जहां ज़हानत होती है
दुनिया में हर शय७ की कीमत होती है.
अक्सर वो कहते हैं वो बस मेरे हैं
अकसर क्यों कहते हैं हैरत होती है.
तब हम दोनों वक्त चुराकर लाते थे
अब मिलते हैं जब फ़ुरसत होती है.
अपनी महबूबा में अपनी मां देखें
बिन मां के लड़कों की फ़ितरत८ होती है.
इक कश्ती में एक क़दम ही रखते हैं
कुछ लोगों की ऐसी आदत होती है.

                 (6)
इस शहर में जीने के अंदाज़ निराले हैं
होठों पे लतीफ़े हैं आवाज़ में छाले हैं.



              





                    (7)
मुझको यकीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं
जब मेरे बचपन के दिन थे चांद में परियां रहती थीं.
एक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे नाता तोड़ लिया
एक वो दिन जब पेड़ की शाखें बोझ हमारा सहती थीं.
एक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी-रूठी लगती हैं
एक वो दिन जब ' आओ खेलें ' सारी गलियां कहती थीं.
एक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं
एक वो दिन जब शामों की भी पलकें बोझिल रहती थीं.
एक ये दिन जब ज़हन में सारी अय्यारी९  की बातें हैं
एक वो दिन जब दिल में भोली-भाली बातें रहती थीं.

एक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आंसू का
एक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं.
एक ये घर जिस घर में मेरा साज़ो-सामां१० रहता है
एक वो घर जिस घर में मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं.

१. अच्छी सूरतवाले.

२. समझदार.

३. प्यारे.

४. इच्छाएं.

५. वीराना.

६. धुंधला.

७. चीज़.

८. प्रकृति.

९. चालाकी.

१०. तामझाम.

प्रबल प्रताप सिंह


Thursday, January 14, 2010

अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
















जन्म दिन  पर...!!
                   (1)
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं.

जुदाइयां तो मुकद्दर हैं फिर भी जाने-सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चल के देखते हैं.

                    (2)
अब के हम बिछुड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें.

ढूंढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये खजाने तुझे मुमकिन है ख़राबों१ में मिलें.

गमे-दुनिया भी गमे-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता  है शराबें जो शराबों से मिलें.

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इन्सां हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें.

आज हमदार२ पे खींचे गए जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों३ में मिलें.

अब न वो हैं न वो तू है न वो माज़ी है फ़राज़
जैसे दो शख्स तमन्ना के सराबों४ में मिलें.
   
                    (3)
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे, छोड़ जाने के लिए आ.

कुछ तो मेरे पिन्दारे-मुहब्बत५ का अरमान
तू तो कभी मुझको मनाने के लिए आ.

पहले से मरासिम६ न सही, फिर भी कभी तो
रस्मे-रहे-दुनिया७ ही निभाने के लिए आ.

इक उम्र से हूं, लज्जते-गिरिया८ से भी महरूम
ऐ राहते-जां मुझको रुलाने के लिए आ.

अब तक दिले-खुशफ़हम को तुझसे हैं उम्मीदें
ये आखिरी शम्मएं भी भुजाने के लिए आ.

१. खंडहर, निर्जन स्थल.

२. फ़ांसी का तख्ता.

३. पाठ्यक्रम, आधार.

४. मृगमरीचिका.

५. प्रेम के अभिमान.

६. संबंध

७. दुनिया के रास्ते की रस्म.

८. रोने का आनंद.
                   (स्रोत: फ़राज़ संकलन)

प्रबल प्रताप सिंह 




Friday, January 1, 2010

नव वर्ष मुबारक....!







































चटकती कलियों को
किलकती गलियों को
नव वर्ष मुबारक....!

नील गगन के बादल को
ममता के आँचल को
नव वर्ष मुबारक....!


पूरब की पुरवाई को
सागर की गहराई को
नव वर्ष मुबारक....!


अनेकता के साथों को
एकता के हाथों को
नव वर्ष मुबारक....!

पतझर की बहार को
माटी के कुम्हार को
नव वर्ष मुबारक....!

बचपन की बातों को
बिछुड़े हुए नातों को
नव वर्ष मुबारक....!

झुकती हुई आँखों को
सूखी हुई शाखों को
नव वर्ष मुबारक....!

पूर्वजों की थाती को
शहीदों की छाती को
नव वर्ष मुबारक....!

छप्पर की बाती को
चींटी-बाराती को
नव वर्ष मुबारक....!

उठती डोली को
पपिहा की बोली को
नव वर्ष मुबारक....!

शहर की अंगड़ाई को
गाँव की बिवाई को
नव वर्ष मुबारक....!

बुजुर्गों के सानिध्य को
भारत के भविष्य को
नव वर्ष मुबारक....!

अलाव की रातों को
बसंत की यादों को
नव वर्ष मुबारक....!

गुजरती राहों को
बिचुद्ती बाँहों को
नव वर्ष मुबारक....!

गाँव की पगडण्डी को
सब्जी की मंडी को
नव वर्ष मुबारक....!

खेतों की फसलों को
चिड़ियों के घोसलों को
नव वर्ष मुबारक....!

रोते नादानों को
उड़ते अरमानों को
नव वर्ष मुबारक....!

निकलते दिनकर को
स्थिर समंदर को
नव वर्ष मुबारक....!

कोयले की खानों को
मुर्गे की बांगो को
नव वर्ष मुबारक....!

नदिया की कल कल को
गोरी की छम छम को
नव वर्ष मुबारक....!

सरहद के जवानों को
खेत खलिहानों को
नव वर्ष मुबारक....!

जीवन दाता को
जग के विधाता को
नव वर्ष मुबारक....!


 







प्रबल प्रताप सिंह